बढ़ते जहरीले रसायनों और कृत्रिम खेती से घटती राजस्थानी वनस्पतियां, दीपावली पर बाजार से नदारद बेर; मतीरे भी बने वीआईपी

Nature

समाचार गढ़, 29 अक्टूबर 2024, श्रीडूंगरगढ़। “दियाळी रा दीया दीठा, काचर बोर मतीरा मीठा” जैसी लोक कहावतें अब कुछ ही वषों में बस किताबों में रह जायेगी क्योंकि बढ़ते अन्धाधुन्ध जहरीले रसायनों के प्रयोग से राजस्थानी वनस्पतियां धीरे-धीरे राजस्थानी जनजीवन से हटती जा रही है। दीपावली के अवसर पर राजस्थान में पारंपरिक रूप से मतीरे, काचर और बेर का पूजन में उपयोग किया जाता रहा है और मतीरे को तो ऋतु फल के रूप में विशेष स्थान प्राप्त है। परन्तु स्वाभाविक मानवीय लालची प्रवृत्ति के चलते लोक कहावतों के अंग बनी ये राजस्थानी वनस्पतियां अपने मूल स्वरूप को खोने के साथ गायब होती जा रही है। गायब होती एक वनस्पति में अपना नाम शामिल करवाने जा रही है बेर की झाड़ी। इसकी विलुप्तता का अंदाज हम इस रूप में प्रत्यक्ष देख सकते हैं कि पहले जहां जमीन की चारदीवारी की जगह बेर की झाड़ियों की बाड़ की जाती थी और हर घर में बेर(बोरिया) को बच्चों, जवान, बूढ़ों द्वारा बड़े चाव से खाया जाता था। वही बेर घरों से दूर होकर दुकानों तक सीमित हो गया और अब हालात ये हैं कि दीपावली पर पूजा के लिए विशेष रूप से प्रयोग होने वाले बेर इस बार दुकानों पर भी दिखाई नहीं दे रहे हैं। दुकानों पर आपको बाकी सब मानव निर्मित वस्तुएं दिख जाएगी परन्तु हमारी संस्कृति से जुड़ी प्रकृति प्रदत्त वस्तुएं नदारद दिखेगी।


श्रीडूंगरगढ़ कस्बे के बाजार में सड़क किनारे लगी दुकानों पर बेर देखने को नहीं मिल रहे हैं और लोग पक्का कयास लगा रहे हैं कि जिन बेरों की कीमत आज से कुछ सालों पहले तक कुछ भी नहीं थी, इस दीपावली पर उनका मूल्य काफी ज्यादा होगा। खैर, पहले की तरह जहां बाजारों में पड़े बेर की ढेरियों से मुट्ठी भरकर चलता राहगीर खा लेता तो दुकानदार कुछ कहता तक नहीं था। परन्तु अब वह बात नहीं रही है। घटती बेर की झाड़ियों के बीच बेर भी महँगे मसालों की तरह प्लास्टिक की छोटी थैलियों में शगुन के रूप में बिकते नजर आ रहे हैं। वहीं मतीरे तो इस बार श्रीडूंगरगढ़ क्षेत्र में ना के बराबर हुए हैं और जो हुए है उनका मिठास, रंग एकदम फीका। कुल मिलाकर गुणवत्ता घटती जा रही है। बड़े-बुजुर्ग अपना हाथ फैलाकर बताते हैं कि “म्हारे टेम इता बड़ा-बड़ा मतीरा आता। एकदम मीठा और लाल”। पहले मतीरे बड़े अच्छे आते थे और सुबह-दोपहर बड़े चाव से उनको खाते थे। परन्तु अब हमारी जीवनशैली से वो दूर होते जा रहे हैं क्योंकि हमें उनकी कदर नहीं रही।
आप शायद इसे समझ पाएं कि मानव निर्मित वस्तुओं को तो हम वापिस बना सकते हैं परन्तु प्रकृति प्रदत्त जो वस्तुएं हैं वह एक बार नष्ट होते-होते विलुप्ति के कगार पर आ गई तो इन्हें बचा पाना बड़ा मुश्किल हो जाएगा। एक बार हमें तटस्थ होकर यह चिंतन जरूर करना चाहिए कि हमारी लोक कहावतों का हिस्सा रहे ये पदार्थ, हमारी संस्कृति का भाग रहे ये पदार्थ और हमारी जीवनशैली का अभिन्न अंग रहे ये पदार्थ किस कारण हमसे रूठ गए हैं। हमें अगर हमारी पहचान बनाए रखनी है तो यह नितांत जरूरी है कि हम इन काचर, बोर और मतीरों के संरक्षण और संवर्द्धन की दिशा में सकारात्मक पहल करें। यह पहल हमारी खुद की, हमारे राजस्थान की, हमारे त्यौहार की पहचान तो बचाएगी ही, साथ ही साथ जैव विविधता को बचाते हुए प्रकृति को भी सहेज कर रखेगी।

Ashok Pareek

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